08 मई 2005

कविताएँ

जीवन

अस्तित्व ने
शून्य आकाश में
लिखा है जीवन
पृष्ठों मे लिखा है जीवन
पानी पर तैरती काई उसकी भूमिका है
फिर पेड–पौधे‚ जीव–जन्तु
पशु–पक्षी एक लम्बा कथानक
उपसंहार में है आदमी
अधिक शब्दों में है उपसंहार
उपसंहार की अंतिम पंक्ति में
अंतिम शब्द है– भगवान.
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नृत्य नहीं उठते पाँवों से
गीत नहीं आते कंठो से
गर बजते हों घुँघरू अंतर में
तो मित्रों
यही जिन्दगी भगवान हो गई **



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जब तक
सिद्धि के लिये दौड़ते रहे
सिद्धार्थ ही रहे
बैठ गये‚ बुद्ध हो गये !
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-नर्मदा प्रसाद मालवीय