08 मई 2005

कविता

अराजकता

मैंने सुना है
मंदिर की चौखट पर
श्रद्धा ने आत्महत्या कर ली
मक्ति को डस लिया
चंदन में लिपटे विषधर ने
भावना का खून हो गया
संसद के फ्लोर पर
रोशनी कैद है
कुबेरों के घर
ईमान की भ्रूण हत्या हो गई
शांति बाजार में गुम हो गई
आशा अंतरिक्ष में जा बसी है
करुणा दफन हो गई श्मशान में
लज्जा रो–रो कर चट्टान बन गई है
ज्ञान बन गया व्यापार
बिक रहा है गलियों में
अनुभव अंतिम साँसें गिन रहा है–
वृद्ध आश्रमों में
बुद्धि अभी खिलौने खेल रही है
अहंकार ऊँचा सिर किये खड़ा है
आस्था को गुण्डों ने अगुआ किया है
ईर्ष्या श्रंगार कर अपनी बेटी
निन्दा के घर जूस पी रही है
पानी की टंकी में घुला है भ्रष्टाचार
रिश्वत दफ्तर में पूजा कर रही है
राजनीति ने घर्म को घर दबोचा है
आश्वासन ओठों का श्रंगार बना है
सत्य‚ अहिंसा‚ त्याग‚ पुस्तक के विषय है
सहिष्णुता की नाक पर मिर्ची मसल गई है
ईश्वर को खरीदने किसने कितना दान किया
किसने कितना चंदा दिया
कहते हैं कि ऊपर वाला माप रहा है
आतंक झोपड़ों में आग लगा
बैठा ताप रहा है
कलेजा ठंडा कर रहा है
***
- नर्मदा प्रसाद मालवीय